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चुनाव के ठीक पहले किसी भी दल या सरकार में बड़ा बदलाव करना नुकसानदायक माना जाता है। आशंका होती है कि बड़े कद के नेता के नाराज होने से उनके मतदाताओं के पार्टी से छिटकने का खतरा होता है। यही कारण है कि कोई भी सरकार-राजनीतिक दल चुनावों के पहले बड़ा बदलाव करने से बचते हैं।
लेकिन राजस्थान, मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इससे ठीक उलट रास्ता अपनाया है। छत्तीसगढ़-राजस्थान के दिग्गजों रमन सिंह और वसुंधरा राजे सिंधिया ही नहीं, मोदी ने उस शिवराज सिंह को भी सरकार से हटा दिया, जो 18 साल से राज्य का नेतृत्व कर रहे थे। इस चुनाव को जिताने में उनकी भूमिका को भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता।
बड़ा सवाल है कि इन बड़े नेताओं को लोकसभा चुनाव के ठीक पहले हटाने से क्या भाजपा को नुकसान हो सकता है? विशेषकर यह देखते हुए कि मुख्यमंत्री बनने की लालसा में ही वसुंधरा राजे सिंधिया ने अपने गृहक्षेत्र की 17 उन सीटों पर भी भाजपा को जीत दिलाने में कोई कमी नहीं रखी, जहां के मतदाताओं पर उनकी बहुत गहरी पकड़ मानी जाती है। इसी प्रकार शिवराज सिंह चौहान ने चुनाव के दौरान ही कह दिया था कि वे उसका साथ देंगे जो उनका साथ देगा।
उनका इशारा पीएम मोदी से जोड़कर देखा गया था और माना गया था कि इसके जरिए उन्होंने पीएम को यही संदेश दिया था कि यदि वे उनका साथ देंगे तो विधानसभा चुनाव के बाद लोकसभा चुनाव में वे उन्हें मध्यप्रदेश की 29 सीटों को जिताकर देने में कोई कमी नहीं रखेंगे। मुख्यमंत्री का नाम घोषित होने तक उनकी ये कोशिश जारी रही थी जो अंततः निष्फल साबित हुई।
लेकिन क्या भाजपा के ये छत्रप अब लोकसभा चुनाव में भितरघात नहीं कर सकते हैं? क्या इससे भाजपा को चुनावी नुकसान नहीं हो सकता है? एक महत्त्वपूर्ण तथ्य यह भी है कि भाजपा ने यह दांव कोई पहली बार नहीं खेला है। इसके पहले भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने विधानसभा चुनावों में पार्टी के जीतने के बाद मजबूत और कद्दावर छवि के नेताओं को चुनने की बजाय कमजोर छवि के मनोहर लाल खट्टर, पुष्कर सिंह धामी, प्रमोद सावंत और भूपेंद्र पटेल जैसे लोगों को मुख्यमंत्री बनाया।
प्रश्न यह भी है कि भाजपा इस तरह के बिल्कुल अनजान चेहरों को राज्य के मुख्यमंत्री जैसे अहम ओहदों पर क्यों बैठा रही है। कर्नाटक-हिमाचल में पार्टी की हार के पीछे वहां पर मजबूत स्थानीय नेता के न होने को अहम कारण माना गया था। इसके बाद भी भाजपा मजबूत स्थानीय नेतृत्व विकसित करने की रणनीति पर आगे बढ़ती नहीं दिखाई दे रही है। इसका क्या कारण हो सकता है?
वैचारिक आधार पर मतदाताओं का विभाजन
सीएसडीएस के संजय कुमार ने कहा कि मतदाताओं की कई श्रेणियां होती हैं। कुछ मतदाता पार्टी को, कुछ बड़े नेता को, कुछ स्थानीय नेता-उम्मीदवार को तो कुछ तात्कालिक कारणों से प्रभावित होकर अपना वोट डालते हैं। वैचारिक आधार पर किसी पार्टी से जुड़ने वाले मतदाताओं की संख्या अलग-अलग चुनावों में 10 से 15 फीसदी के करीब होती थी, लेकिन देखा जा रहा है कि अब वैचारिक आधार पर किसी पार्टी का समर्थन या विरोध करने वाले मतदाताओं की संख्या बढ़ रही है। अब यह हिस्सा 20 से 30 फीसदी तक हो गया है। यह बदलाव दुनिया के दूसरे हिस्सों में भी देखा जा रहा है।
भाजपा ने बड़े चेहरों पर दांव क्यों नहीं लगाया, यह उसका आंतरिक मसला है। लेकिन एक बात सत्य है कि उसके वैचारिक आधार पर प्रतिबद्ध मतदाताओं की संख्या् लगातार बढ़ रही है। किसी चुनाव में हार के बाद भी उसका मत प्रतिशत एक सीमा से नीचे न आने को इसी आधार पर व्याख्यायित किया जा सकता है। संभवतः यह एक कारण हो सकता है कि पार्टियां अपनी वैचारिक स्वीकार्यता बढ़ाने के लिए ज्यादा काम करती दिखाई पड़ रही हैं।
वैचारिक आधार पर ज्यादा प्रतिबद्ध मतदाताओं के होने से पार्टियों को किसी नेता के बागी होने से होने वाले नुकसान से बचने की संभावना बढ़ जाती है। इस तरह के मतदाताओं को राष्ट्रीय स्तर पर एक अच्छी नीति बनाकर उन्हें अपने साथ जोड़ना ज्यादा आसान होता है। यही कारण है कि राजनीतिक दल अपनी वैचारिक स्वीकार्यता बढ़ाने के लिए ज्यादा काम करते हुए दिखाई दे रहे हैं।
भाजपा की राजनीति को नए चश्मे से देखने की जरूरत
राजनीतिक विश्लेषक अवधेश कुमार ने अमर उजाला से कहा कि यह धारणा पुरानी पड़ चुकी है कि किसी बड़े कद के नेता को हटाने से पार्टी को नुकसान होगा। यदि भाजपा को समझना है, तो उसकी नई राजनीति को नए राजनीतिक मापदंड के चश्मे से देखना होगा। उन्होंने कहा कि जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी स्वयं गुजरात के मुख्यमंत्री बने थे, तब वे स्वयं कोई बड़ा नाम नहीं थे, लेकिन अपने काम से उन्होंने स्वयं को सिद्ध किया। बाद में जब मोदी प्रधानमंत्री बने तब उनकी आर्थिक-वैदेशिक समझ को लेकर टिप्पणियां की जा रही थीं, लेकिन उन्होंने अपनी समझबूझ से स्वयं को दुनिया के सबसे बड़े राजनेताओं में शामिल कर लिया। संभवतः यही कारण है कि मोदी संगठन में बेहतर काम करने वाले सामान्य लोगों को अवसर दे रहे हैं, लेकिन सत्ता में आने के बाद वही चेहरे बेहतर परिणाम दे रहे हैं।
जैसे योगी आदित्यनाथ भी मुख्यमंत्री बनने के पहले इतने बड़े छवि के नेता नहीं थे, लेकिन आज वे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के बाद सबसे मजबूत छवि के नेताओं में गिने जाते हैं। अमित शाह भी गुजरात के गृहमंत्री बनने से पहले बड़े नेता नहीं थे। लेकिन पद मिलने के बाद उन्होंने अपने आपको साबित किया। उन्होंने कहा कि भाजपा इसी रणनीति पर चलकर बड़े नेता पैदा कर रही है। पार्टी की इस सोच को समझना चाहिए।
बड़े चेहरों को हटाने का कारण
अवधेश कुमार ने कहा कि हिमाचल प्रदेश हो या कर्नाटक, भाजपा की हार में यह बात साफ देखी गई है कि वहां स्थानीय नेताओं में नेतृत्व के अवसर को लेकर लड़ाई थी। जिसे अवसर नहीं मिलता था, वह पार्टी को नुकसान पहुंचाने लगा। संभवतः इस नुकसान को देखते हुए ही पार्टी ने राजस्थान, मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में किसी को चेहरा नहीं बनाया। इसका परिणाम हुआ कि सबने जोर लगाया और पार्टी को शानदार जीत मिली।
जहां तक लोकसभा की बात है, लोकसभा चुनाव में मतदान का सबसे बड़ा आकर्षण प्रधानमंत्री का चेहरा होता है। 2014 और 2019 के लोकसभा चुनाव परिणाम बताते हैं कि कमजोर राज्यों में भी मोदी की छवि के कारण भाजपा को ज्यादा वोट मिल रहा है। ऐसे में उन्हें नहीं लगता कि इन चेहरों को हटाने के कारण भाजपा को लोकसभा चुनाव में कोई नुकसान होगा।
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