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मुंबई: बॉलीवुड के मौजूदा संगीतकारों में विदेशी धुनों से प्रेरणा लेने की लंबी परंपरा रही है। लेकिन AR Rahman ने इस परंपरा के विपरीत जा कर देसी धुनों की जुगलबंदी कर बॉलीवुड को एक नए संगीत संसार से परिचित कराया और उनकी इसी खासियत ने उन्हें फिल्म संगीत के सबसे मौलिक म्यूजिशियन होने का खिताब दे दिया। 6 जनवरी 1967 को चेन्नई में जन्मे अल्लारखा खान आज अपना 67वां जन्मदिन मना रहे हैं। आइए जानते हैं रहमान के फिल्मी सफर के बारे में कुछ खास बातें…
AR Rahman Birthday: Iconic songs which showcase his influence on music industry
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— ANI Digital (@ani_digital) January 6, 2024
इलैयाराजा ने रहमान को तराशने में निभाया अहम रोल
रहमान जब मात्र 9 वर्ष के थे तब उनके पिता की मौत हो गई थी। पिता की मौत का रहमान के मन पर गहरा असर हुआ। मात्र 11 वर्ष की उम्र में अपने बचपन के मित्र शिवमणि के साथ रहमान बैंड रुट्स के लिए की-बोर्ड (सिंथेसाइजर) बजाने लगे, जहां मशहूर संगीतकार इलैयाराजा से उनकी मुलाकात हुई। इलैयाराजा ने रहमान को तराशने में काफी अहम रोल अदा किया। 1991 में रहमान ने अपना स्टूडियो शुरू किया जिसमें वो विज्ञापनों और डॉक्यूमेंट्री फिल्मों के लिए संगीत देते थे।
‘रोजा’ के गाने ने रहमान को बुलंदियों पर पहुंचाया
एक जिंगल की धुनों से प्रभावित होकर 1992 में फिल्म निर्देशक मणिरत्नम ने उन्हें अपनी फिल्म ‘रोजा’ में बतौर संगीत निर्देशक काम दिया। ‘रोजा’ के गानों ने रहमान का झंडा बुलंद कर दिया। इस फिल्म में रहमान ने संगीत दिया, जो जल्द ही लोगों की जुबान पर चढ़ गया। ‘रोजा’ की धुनें बॉलीवुड की पारंपरिक धुनों से बिलकुल अलग थी। ये बॉलीवुड संगीत में अपनी किस्म का एक नया प्रयोग था, जिसे लोगों ने काफी पसंद किया। खासकर ये हिंदी क्षेत्र में रहमान की कामयाबी की शुरुआत थी जिसने आगे चलकर उन्हें बुलंदी पर पहुंचा दिया।
रहमान के नए प्रयोग ने संगीत को दी नई ऊंचाइयां
‘रोजा’ के बाद आई रामगोपाल वर्मा की ‘रंगीला’ और मणिरत्नम की ‘बॉम्बे’ ने खूब धूम मचाई। रहमान ने धुनों के साथ परंपरागत म्यूसिकल इंट्रूमेंट के प्रयोग में भी नया नजरिया पेश किया। तहजीब, दिल से, रंगीला, ताल, जींस, पुकार, फिजा, लगान, मंगल पांडे, स्वदेश, रंग दे बसंती, जोधा-अकबर, जाने तू या जाने ना, युवराज, स्लम डॉग मिलेनियर, गजनी जैसी फिल्मों में रहमान नए-नए प्रयोग करते हुए संगीत को नई ऊंचाइयों पर पहुंचते रहे। उन्होंने देश की आजादी की 50 वीं वर्षगांठ पर 1997 में ‘वंदे मातरम्’एलबम बनाया, जो जबरदस्त सफल रहा।
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रहमान के लिए पेशे से ज्यादा एक पूजा है संगीत
रहमान पेशे से संगीतकार जरूर हैं, लेकिन संगीत उनके लिए पेशे से बढ़कर एक इबादत की तरह है। संगीत उनके दिमाग से नहीं दिल से निकल कर सीधे सुनने वालों के दिल में उतर जाता है। रहमान पर सूफीवाद का गहरा असर है। फिल्मों में जहां कहीं ऐसा मौका मिलता है रहमान सूफी संगीत पर अपनी पकड़ साबित कर देते हैं। फिल्म ‘जोधा अकबर’ उनकी सूफी समझ का बेजोड़ उदहारण है।
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